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Saturday, 25 April 2009

आंखों में तिरता है गाँव

आंखों में तिरता है गाँव /सपनों में दिखता है गाँव

अलस्सुव्ह ही खाट छोड़ना
आलस की जंजीर तोड़ना
दुहना गैय्या भैस बकरिया
हार खेत से तार जोड़ना
हल कंधों पर ,चलते पाँव /हार खेत में दिखता गाँव

त्योहारों के रंग अनूठे
भेदभाव के दावे झूठे
दुःख में चीन भीत बन जता
सुख के राग फाग शुचि मीठे
वारी पर देता है दाँव / महा रास बन खिलता गाँव

अम्मा बापू दादा दादी
बसता उनमें काबा काशी
शहरी आवोहवा न पचती
लगता कूड़ा-करकट बासी
गड़ी नाल वो रुचता ठाँव /बातों में बतियाता गाँव
[भोपाल:२६.०४.०७]





Friday, 24 April 2009

कैसे मनाऊँ

तुम्हीं बताओ कैसे मनाऊँ
भाई बहनों का त्यौहार

घर आँगन सब सूना सूना
इक्लौतापन उससे दूना
आसपास है बहन न कोई
जितना सुख दुःख उससे ऊना
किसको क्या सौपूं उपहार

माँ की गोदी सूनी कर दी
अनचाहे आंसू से भर दी
टुकुर टुकुर मै रहा देखता
दो दो बहनें छोड़ के चल दीं
आंसू में डूबा सब प्यार

मनमारे रो रही कलाई
रोके रुकती नहीं रुलाई
भाई बहन वे खुशी रहें
बांधें राखी खाय मिठाई
मेरी उन पर खुशियाँ न्यौछावर
[भोपाल:१६.०८.०८]

मेरी यादों में धुंधली रेखाएं मुझे बतातीं हैं कि मेरी एक छोटी बहन ननिहाल में चल बसी ,दूसरी छोटी बहन को मई हजर से बाहरकुंए के पास
अपनी गोदी में खिला रहा था कि अचानक ज़मीनपर गिर पड़ी और कुछ ही घंटों में चल बसी .आज भी लगता है कि बहन मेरी लाप्रबाही के कारणदुनिया से चल बसी .जब जब राखी का त्यौहार आता है मेरी आखें भर भर आती हैं यह लिखते हुए भी दिल भारी हो गया क्या मैहत्यारा हूँ?





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मेरा घर

छूमंतर हो जाय जहाँ पर तन मन बसी थकान
आसपास में बहीं मिलेगा मेरा घर दालान

आम नीम बरगद पीपल की
जहां घनेरी छाँव
जेठ दोपहरी थके पथिक के
रुकें जहाँ पर पाँव
करें बसेरा मिलजुल पंछी गायें गौरव गान

जहां बिसात बिछी सपनों की
लोरी की सौगात
गडी नाल पीढी दर पीढी
बता रही औकात
रहें कहीं भी इस दुनिया में पल पल खीचें ध्यान

माँ चूल्हे की सिकीं रोटियाँ
दादी फेरी छाछ
संबंधों के कोमल किसलय
हरी भरी ज्यों गाछ
खोज खोज कर हारे घर के मिले नहीं उपमान
[व्भोपाल:०२.०६ .०८]

भूल गए हम गाँव

हवा लगी है जबसे शहरी भूल गए हम गाँव

रोजी रोटी के चक्कर में
सारे दिन हम भटके
मंहगाई के गलियारों में
कदम कदम पर अटके
पोर पोर में पगी पीर से हारे तन मन पाँव

चोर उचक्के दिन दोपहरी
करते काम तमाम
तन्त्र समूचा गूंगा बहरा
प्रजातंत्र के नाम
बात बात पर कर आरोपित नहीं चूकता दाँव

कोई नहीं किसी की सुनता
अपने अपने किस्से
भूख प्यास कुंठाएं आतीं
केवल सबके हिस्से
भटक रहीं हैं जिंदा लाशें भूल गयीं निज ठाँव
[भोपाल:२९.०५.०८]

Thursday, 23 April 2009

शुभागमन

बिटिया दामाद का शुभागमन
महक उठा सारा घर आँगन
पूरी बस्ती में खबर उड़ी
घर घर में उछली खीरपुरी
खुशियों के लग गए पंख
स्वागत में बज उठे शंख

कामकाज सब हुए ठप्प
सब ठौर हो रही गप्प गप्प
हैरान हुई दे दे दस्तक
तिल भर सिकन न आई मस्तक
मस्ती की छन रही भंग
टली बिदा उमड़ी उमंग
[भोपाल:१०.१० .०७]