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Friday, 24 April 2009

भूल गए हम गाँव

हवा लगी है जबसे शहरी भूल गए हम गाँव

रोजी रोटी के चक्कर में
सारे दिन हम भटके
मंहगाई के गलियारों में
कदम कदम पर अटके
पोर पोर में पगी पीर से हारे तन मन पाँव

चोर उचक्के दिन दोपहरी
करते काम तमाम
तन्त्र समूचा गूंगा बहरा
प्रजातंत्र के नाम
बात बात पर कर आरोपित नहीं चूकता दाँव

कोई नहीं किसी की सुनता
अपने अपने किस्से
भूख प्यास कुंठाएं आतीं
केवल सबके हिस्से
भटक रहीं हैं जिंदा लाशें भूल गयीं निज ठाँव
[भोपाल:२९.०५.०८]

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