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Saturday, 29 November 2008

बंधुआं मजदूर

अंग अंग पीडा जग क्या जाने
मै कितना मजबूर
मै बधुआ मजदूर

भालू बंदर जैसा हमको
मालिक रोज़ नचाता
बात बात में गाली देता
हरदम रौव जमाता
तन की चाँदी मन का सोना
आंसू से भरपूर

फटे पुराने कपड़े लत्ते
अंग अंग शर्माए
लगी फफूंदी रोटी सालन
मालिक जब भिज्बाये
अन्खाये सो जाती कुटिया
निदिया भागे दूर
खून पसीने की मेहनत
टुकडा टुकडा में
बाहर कुटिया रोटी



sabkee chhaatee



bheetr



लगीं फफूँदी रोटी सालन
मालिक जब भिजबाये
अन्खाये चाँदी मन कुटिया iyaa न्खाये दूर
चांदी पसीने जो कमाई
टूकडों








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