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Sunday, 29 June 2008

पिरती रहती

रामबती बेचारी बिधवा
घानी सी पिरती रहती
जीवन में हसने गाने की
जब जब नौबत आती है
दिया सिसकता आँसू पी पी
बुझ बुझ जाती बाती है
नून तेल लकडी चिंता में
बिना जले जलती रहती
खेत जोतने बोने का जब
सर पर भूत सबार हुआ
गहने सारे गिरवी रखकर
खाद औ बीज उधार लिया
करे निराई और सिचाई
चरखी सी चलती रहती
हरा भरा खलिहान हुआ जब
पिछ्ला कर्ज याद आया
साँस साँस पर मौत का पहरा
अरे लाश पर चलती फिरती
सबसे पहले खाट छोड़ना
दसं भर हरे घाव सीना
घर बाहर की हर चिंता में
घुल घुल करके नित जीना
हंसते सूरज सी उगती
चंदा सी बदती घटती
[भोपाल:०६.०८.२००७]




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