Welcome!

Tuesday, 6 May 2008

सोनचिरैया

मलयानिल कानों में कहती

मलयानिल कानों मे कहती
मेरी अम्मा सोनचिरैया
हात पकड़ते ही अम्मा के
सारा घर गम पीता
जैसे सूरज के ढलते ही
सारा जग तम जीता
अम्मा चलती घर चलता था
घर कश्ती की कुशल खिवैया
बात बतंगड़ जब बनती
कैसे दफना देना
छोटी बड़ी रंजिशों काविष
यों ही उतार देना
जो मागो सो वह देती थी

kaamdhenu kee वंशज मैया
कब कैसा रोना गाना
किसका क्या लेना देना
कितनासब समझाना
कब कितना जद जमीन
की सिर्जन्हारी
मेरी थी जसुदा मैया
आल चलन की कुशल चितेरी
उंगली उठ ना पाई
जद ज़मीन तन-मन से सींची
सौंपी खरी कमाई
जहाँ जरूरत जैसी होती
झटपट ढल जाती थी अम्मा
[भोपाल:०७.०८.०७]

No comments: