जन गण कानाफूसीँ करता
हो गए है मेघा पागल
पानी भरकर लिए मशक में
घूम रहे हैँ इधर उधर
तरसाते हैँ बूँद बूँद को
तपते मरुथल बनें अधर
मागें पानी पत्थर गिरता
मेघा हो गए हैं पागल
ना जानें पागल विजली से
पाला हैँ कैसा रिश्ता
करें मुनादी ढोल पीटकर
करते जनजीवन खस्ता
जो पथ में आजाये मरता
गुस्से में जब आजाते हैं
देखें ना आगा-पीछा
गाँव शहर जड़ चेतन सासें
कर देते सबको छीछा
इन्द्रधनुष टीबी बहुत अखरता
हो गए हैं मेघा पागल
[भोपाल ०८। ०९। ०७ ]
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