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Saturday, 22 December 2007

गिलहरी

देश रहा परदेश गया
सभी जगह पर मिली गिलहरी
भूले भटके आँगन में जब आई
सूख रहे दानों पर तब ललचाई
पीछे पड़ गए छोरा छोरी घर के
मार मार कर ढेला तुरत भगाई
जान बचाकर पेड़ चड़ी
मन ही मन में दुखी गिलहरी
रामसेतु की जग में धूम मची है
अमिट निशानी बस अवशेष बची है
खून पशीना दिया गिलहरी ने जो
रेखाओं में वो तस्वीर खिची है
युग बीते युग रीतेंगे
याद दिलाती सबको यही गिलहरी
कटते जंगल देख देख रोती है
आंखों की नींद गई ना सोती है
सोच रही मुथरी पड़ जाय कुल्हाड़ी
उज्जवल भविष्य के सपने बोती है
सांस शेष जबतक वन की
नहीं चुकेगी दुनिया कहे गिलहरी
[भोपाल: 1.12। 07]


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