कहाँ गए वे दिन वे लोग
बहू बेट्याँ बाजारों में
खजुराहो सी सजल मूर्तियाँ
टंगजातीं हैं बरबस आँखें
चलतीं फिरतीं अटल खूँटियाँ
सीता सत्यवती भारत की
कहाँ गयीं आदर्श नारियां
आदर्शों के लिए छोड़ दें सुख सुविधा साधन सब भोग
सकल समाज तंत्र को घेरे
भ्रष्टाचार अनय के बादल
न्याय धर्म ईमान लुट रहा
छुड़ा रहे आंखों का काजल
नीति तंत्र की धुरी बने
एक से एक थे आलिमफाजिल
ढूढे से भी अब ना मिलता जोड़ गुणा का भी सहयोग
आसमान पर उड़े आदमी
जड़ ज़मीन से उखडा उखडा
बना मशीन आदमी घूमें
प्रक्रति नटी से करता झगड़ा
उगल रहा है आए दिन अब
नए नए लफड़ा पर लफड़ा
दिन सोना चादीं सीं रातेंस्बके सब सपनों का योग
[भोपाल:०८.०१.०८]
लफडे