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Saturday, 29 November 2008

बंधुआं मजदूर

अंग अंग पीडा जग क्या जाने
मै कितना मजबूर
मै बधुआ मजदूर

भालू बंदर जैसा हमको
मालिक रोज़ नचाता
बात बात में गाली देता
हरदम रौव जमाता
तन की चाँदी मन का सोना
आंसू से भरपूर

फटे पुराने कपड़े लत्ते
अंग अंग शर्माए
लगी फफूंदी रोटी सालन
मालिक जब भिज्बाये
अन्खाये सो जाती कुटिया
निदिया भागे दूर
खून पसीने की मेहनत
टुकडा टुकडा में
बाहर कुटिया रोटी



sabkee chhaatee



bheetr



लगीं फफूँदी रोटी सालन
मालिक जब भिजबाये
अन्खाये चाँदी मन कुटिया iyaa न्खाये दूर
चांदी पसीने जो कमाई
टूकडों








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Tuesday, 18 November 2008

क्यों इतराते जय जय राम

उमर बड़ी है कविता छोटी
क्यों इतराते जय जय राम
चलने से पहले तैयारी
अगर नहीं कर पाये पूरी
अधकचरे संसाधन सारे
संकल्पों की मांग अधूरी
मंजिल तक कैसे पहुचोगे
जब सकुचाते जयजयराम

बम बारूद बिछी पग पग पर
बागुड लगी चाटने फसलें
पता नहीं है अपने ही कब
विष बुझे तीर तीखें उगलें
सोच समझ कर ताल ठोकन्ना
सब समझाते जयजयराम

घिसी पिटी भाषा लय स्वर गति
काम नही अब आने वाले
भानुमती के कुनवे की अब
गीत नही है सुनने वाले
पीर पराई ही पीने में
वे सुख पते जय जय राम
[भोपाल १५ नवम्बर २००८ ]