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Sunday, 3 August 2008

प्रश्न ?

केवल कोरे कागज़ रगना
कविता कैसे हो सकती है ?

जहाँ कहीं खूँख्वार अँधेरा
सूरज बहाँ उगाना है
कौर छीन रहा जिन के मुँहसे
उनको कौर दिलाना है
शंखनाद को सुनसुन करके
जनता कैसे सो सकती है ?

पलपल बदल रही दुनिया की
धड़कन सुनना बहुत जरूरी
उग्रबाद बाजारबाद की
चालें गुनना बहुत जरूरी
बम बारूद बिछी घर आँगन
सुबिधा कैसे हो सकती है ?

कल-कल -कल -गाते गाते
पग -पग , पल-पल ,आगे बढ़ना
दूर-दूर पुलिनों का रहकर
योग साधना में रत रहना
युग युग ने सौपीं सौगाते
सरिता कैसे खो सकती है ?

छीज रहे शब्दों की वीना
फटे बाँस की मुरली जैसी
जड़ जमीन से उखड़ी भाषा
पकी -अधपकी खिचड़ी जैसी
भानुमती का कुनबा हो तो
गीत गजल क्या हो सकती है ?
[भोपाल: १३.०७.०७]


3 comments:

डा ’मणि said...

अच्छी कविता के लए बहुत बधाई ...

ब्लॉग्स के नये साथियों मे आपका स्वागत है

चलिए परिचय की एक कविता भेज रहा हूँ देखिएगा

चाहता हूँ ........
एक ताजी गंध भर दूँ
इन हवाओं में.....

तोड़ लूँ
इस आम्र वन के
ये अनूठे बौर
पके महुए
आज मुट्ठी में
भरूं कुछ और
दूँ सुना
कोई सुवासित श्लोक फ़िर
मन की सभाओं में

आज प्राणों में उतारूँ
एक उजला गीत
भावनाओं में बिखेरूं
चित्रमय संगीत
खिलखिलाते फूल वाले
छंद भर दूँ
मृत हवाओं मैं .....................

आपकी सक्रिय प्रतिक्रिया कॅया इंतज़ार करूँगा
डॉ उदय 'मणि ' कौशिक
http://mainsamayhun.blogspot.com
umkaushik@gmail.com
094142-60806
684 महावीर नगर ईई
कोटा, राजस्थान

Anonymous said...

.......अति सुंदर,सार्थक अभिव्यक्ति.......गागर में सागर है यह कविता.... इतनी अमूल्य रचना हेतु आभार.....

Jaijairam anand said...

aapke upyogee avm protsaahn ke liye bahut bahut dhnybaad.
Dr Anand